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तेरे कूंचे पे आकर भी

तेरे कूंचे पे आकर भी नहीं अब दिल बहलता है,
यहाँ भी है धुआँ फैला, वहाँ भी कोई जलता है।

परेशां इस ज़माने में न पूछो कौन है कितना,
कभी गिरता, कभी उठता, कभी इन्सां संभलता है।

मोहब्बत आशिक़ी प्यारे लगी कब की न कुछ पूछो,
इनायत उसकी है जिस पर उसे यह दिल से मिलता है।

कोई काग़ज बना कोरा न रंग पाया अधर अपने,
न उसने पोखरे देखे जहाँ पंकज भी खिलता है।

सामने की जगी चाहत पसारो अपनी बाहें फिर,
तुम्हे यह याद तो होगा ये दिल क्यूँ कर मचलता है।

सभी आशिक़ समन्दर के, कोई अंदर, कोई बाहर,
किसे न है कब कैसे इसे सागर समझता है।
~ विजय नाथ झा