इक बेदिली रही

कल दोपहर अजीब इक बेदिली रही
बस तिल्लियाँ जलाकर बुझाता रहा हूँ मैं।

रूहों के पर्दा-पोश गुनाहों से बे-ख़बर
जिस्मों की नेकियाँ ही गिनाता रहा हूँ मैं।

शायद मुझे किसी से मोहब्बत नहीं हुई
लेकिन यक़ीन सब को दिलाता रहा हूँ मैं।

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