Search Results for : अंकुश चौहान अंश

शाख से हर बार टूटे

शाख से हर बार टूटे मगर
उसूलों से जिंदगी जी है,
कांटे ही चुभे हर दफ़ा
जब भी गुलों की आरज़ू की हैं,
अफ़सोस है मुझे अब भी
उसी अब्र का,
जो छाया तो घटाओं सा
पर बरसा अभी तक नहीं है।